Monday 5 May 2014

"सोशल मीडिया का प्रभाव "



"सोशल मीडिया नें कुछ वर्षों में ही अपनी  जगह समाज में बना ली है। आज इसके बिना दुनिया अधूरी सी लगतीं है ,चुनाव हो या कोई आंदोलन आज सोशल मीडिया पर प्रचार के बिना अधूरें हैँ। दुनिया की सबसे बड़ी सोशल नेटवर्किंग साइट फेसबुक ने इसी साल अपनी दसवीं सालगिरह पूरी की है। 2004 में पहली बार फेसबुक सोशल मीडिया के रुप में आया। Twitter तो 2009 में आया है। 2009 में जितने लोंगो ने कांग्रेस को वोट देकर सरकार बनाई इस बार करीब उतनी सख्यां भारत मे सोशल मीडिया का उपयोग करने वालों की है। पार्टी का प्रचार प्रसार भी  सोशल मीडिया जबरदस्त कर रहा है ,इसलिए चुनाव आयोग पार्टिंयों की गतिविधियों पर निगरानी लगाए हुये हैं, सोशल मीडिया पर प्रचार के लिए।

सोशल मीडिया के जरिए पार्टी फंड भी जुटाती है ,वोटर तक पहुंचने ओर अपनी बात रखने का सशक्त माध्यम बन गया  है। नीतियां वादें और भाषणों के लिए राजनैतिक पार्टियों नें youtube पर अपने चैनल बना रखे हैं। देश के दस करोड़ लोग इंटरनेट क इस्तेमाल प्रतिदिन करते हैं ,इसलिए भी सभी मुद्दों से जुड़ने में  सोशल मीडिया के इस्तेमाल की  भूमिका अहम है ,चुनाव में सबसे ज्यादा सोशल मीडिया का प्रयोग आप (आम आदमी पार्टी ) नें किया जिस वजह से उसें दिल्ली विधानसभा चुनाव में जीत हासिल हुई थी। आजकल दोनों बड़ी पार्टियां कांग्रेस हो या भाजपा दोनों जमकर प्रचार के लिए सोशल मीडिया का प्रयोग कर रही हैं। 

कांग्रेस ने सोशल मीडिया पर प्रचार युवाओं को पार्टी से जोड़ने के लिये "कट्टर सोच नहीं युवा जोश"अभियान चलाया हुआ है ,अभियान से कांग्रेस उपाध्यक्ष राहुल गांधी की छवि चमकाने कि कोशिस की जा रही है , विपक्ष के प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार नरेंद्र मोदी को करारा जबाव देने कि कोशिस हो रहीं है , साथ ही  कांग्रेस पार्टी इस अभियान के जरिए विपक्षी पार्टियों के खिलाफ पोल खोल अभियान भी चला रही हैं। 

भारतीय जनता पार्टी नें लोकसभा चुनाव 2014 के लिए देश भर में 272 से अधिक सीटें जीतने का लक्ष्य बना रखा है, इसी के साथ नरेंद्र मोदी को नमो नाम से सम्बोधित किया जाता है। नरेंद्र मोदी की दिल्ली में रैली हुई तो "नमो दिल्ली" नाम से केम्पेन फेसबुक ओर twitter पर चलाती रही। आम आदमी पार्टी ने ( AAP in Anction ) नाम से अभियान चलाया है ,जिसके माध्यम से वह अपने फैसलों से लोंगो को अवगत कराती है ,साथ ही कांग्रेस की तरह पोल खोल अभियान चलाए हुए है। जिससे वह भाजपा और कांग्रेस के भ्रश्टाचार ,विकास का पोल खोलने में लगीं हूई है। 

सोशल मीडिया अब देश कि धडकन बन चुकीं है ,इसकी बिना रहना अब लोंगों  को अधूरा लगता  है। 

सुगंधा झा 

Friday 25 April 2014

"महिलाएं और राजनीती "



देश में आधी आबादी राजनीती में अभी भी हाशिए पर है ,क्योंकि महिलाओं को राजनीती मे आने का मौका कम ही मिलता है। लेकिन जब भी मौका मिला वह सबसे आगे रही है। भारतीय संसद का दुर्भाग्य यह है कि संसद में महिलाओं के लिए 33 प्रतिशत आरक्षण दिलाने वाला विधेयक कुछ पार्टियोँ के चलते सालों से लंबित है। अफ़सोस की बात यह है की बड़ी पार्टियां दस से पन्द्रह फीसदी से अधिक महिलाओं को लोकसभा चुनाव लड़ने के लिए टिकट नहीं  देती है। अब राजनीती मे महिलाओं ने रुचि लेनी आरभ्म की है ,पहले वह पति के मुताबिक ही मतदान करती थी ,लेकिन अब महिलाएं अपने मनमुताबिक अपने मताधिकार का  प्रयोग करनें लग़ी हैँ। 

तमाम कठिनाइयों और परेशानी के बावजूद महिलाएं राजनीती में आई ,बल्कि उन्होने पार्टियों और सरकारों को नेतृत्व प्रदान किया है,राजनीती में तमाम महिलाएं ऐसी है ,जिन्होंने अपनी धाक जमाई है और किसी भी क्षेत्र मे पुरुषो से पीछे नहीं हैं।  विधानसभा हो या लोकसभा गंभीर मुद्दों पर महिलाओं ने अपनी बात रखी। पिछले कुछ सालों में हुए चुनावों में महिलाओं ने अपने मत का सबसे अधिक प्रयोग किया है। 

आज भी भारतीय राजनीती में पुरुषवादी सोच हावी है ,हर पार्टी आम आदमी कि बात करती है ,जबकि आम औरत के बारे में  बोलने से सभी बचतें हैं। सियासी दलों के मुद्दों में महिलाओं के मुद्दें काफी पीछे होते हैं ,क्योंकि देश की बड़ी पार्टियां माहिलाओं को वोट बैंक नहीं मानतीं हैं। 1917 में पहली बार महिलाओं की राजनीती मे भागीदारी कि माँग उठी थी। सन 1930 में महिलाओं को मताधिकार मिला , हमारे देश में महिलांए भले ही तमाम उच्च पदों पर हों,

लेकिन राजनीती में अभी भी महिलाओं की कमी है, जो चिंता का विषय है ?

राजनेता और राजनैतिक पार्टियों को महिलाओं के प्रति अपनी सोच बदलनी ही पड़ेगी तभी देश का विकास सम्भव है। 



:::::::::::  सुगंधा झा 

Sunday 6 April 2014

"भारतीय राजनीती में फिल्मी सितारें "


भारतीय राजनीती में ग्लेमर का तड़का हमेशा से लगता रहा है। पहले यह प्रविर्ती कम थी ,दक्षिण की राजनीती की  बात करें तो वहा यह हमेशा प्रभावशाली रहे हैं,लेकिन कुछ चुनावों से पूरे भारतीय राजनीती परिदृश्य में राजनेताओं का दखल बढ़ता जा रहा है। सोलहवीं लोकसभा के लिए कई सितारें चुनाव मैदान में उतरें हैं ,लगभग सभी पार्टियों ने सितारों पर जमकर दावं खेला है। ग्लेमर की वजह से ही कई बार विपक्ष के मजबूत उम्मीदवार को हरा चुके हैं ,इसकी मिसाल अमिताभ बच्चन और गोविंदा हैं। 

कांग्रेस ने राज बब्बर को गाजियाबाद ,नगमा को मेरठ ,रविकिशन को जौनपुर से टिकट दिया है। भारतीय जनता पार्टी ने हेमा मालिनी को मथुरा ,किरण खेर को चंडीग़ढ़ ,परेश रावल को गुजरात ,तो मनोज तिवारी को दिल्ली से
उम्मीदवार बनाया हैं। वही आम आदमी पार्टी ने चंडीगढ़ से गुल पनाग को तो लखनऊ से जावेद जाफरी को मैदान में उतारा है। 

पार्टी नेताओं का कहना है कि फ़िल्मी सितारों के आने से कार्यकर्ताओं में जोश भरता है। समाज के लोगं उन्हें खुद से जोड़ पाते हैं ,लेकिन कई बार सितारें लोगों कि उम्मीदों पर खड़े नहीं उतर पाते हैं ,और वापस अपनी दुनिया में लौट जाते हैं।इस बार के लोकसभा चुनावों में जमकर सितारों को सीटें दी गयी हैं ,कई बार देखा गया है ,कि फ़िल्मी सितारों को ऐसी जगह से टिकट दिया जाता है ,जहां से पार्टियों के पास कोई बेहतर उम्मीदवार नहीं होते हैं। मथुरा से हेमा मालिनी और मेरठ से नगमा इसके उदाहरण हैं ,यही वजह है कि चंडीगढ़ से भाजपा उम्मीदवार किरण खेर का क्षेत्रीय कार्यकर्ताओं ने ही विरोध किया था। राज बब्बर और जनरल वीके सिंह पर भी बाहरी उम्मीदवार होने कि वजह से गाज़ियाबाद में परेशानियों का सामना करना पड़ा है। 

2004 के चुनाव में धर्मेन्द्र बीकानेर से भाजपा के टिकट पर चुनाव जीतें। गोविंदा ने कांग्रेस उम्मीदवार के तौर पर उत्तर मुम्बई के लोकसभा सीट से भाजपा के राम नाईक को हराया था। लेकिन जीत के बाद दोनों अभिनेताओं ने अपने क्षेत्र की  जनता को अपना चेहरा तक नहीं दिखाया था ,जिसे लेकर वहा के क्षेत्रीय लोगों में काफी गुस्सा था। बीकानेर और मुम्बई के लोगों ने तो धर्मेन्द्र और गोविंदा की  गुमशुदगी के पोस्टर तक क्षेत्र में लगा दिए थे। 

अब देखना दिलचस्प होगा कि सोलहवीं लोकसभा में कितने सीतारे संसद तक पहुँच कर जनता कि सेवा करते हैं या वह भी और सितारों कि तरह जनता को मुर्ख ही बनाते रहेंगे। 

::::::::: सुगंधा झा 

Thursday 3 April 2014

"क्षेत्रीय दलों की बढ़ती भूमिका "


राजनीती में दलों कि बढ़ती संख्या के कारण भ्रष्टाचार भी बढ़ रहा हैं। आज देश में बड़ी पार्टियों से ज्यादा क्षेत्रीय दलों की संख्या हैं। भारत  के हर राज्य में दो से अधिक क्षेत्रीय दल है ,क्षेत्रीय दलों  की  अहम भूमिका होती है। लोकसभा चुनावों के बाद सरकार बनाने और गिराने में।

2014 के लोकसभा चुनावों  की  स्थिति भी कुछ साफ नहीं दिखती। अभी तक किसी पार्टी को पूर्ण बहुमत मिलने का असार नहीं दिखाई दे रहा है। चुनावों से पहले दोनों पार्टियां क्षेत्रीय दलों से गठबंधन में लगी रहती है ,क्योंकि क्षेत्रीय दलों की अपने राज्यों में काफी अच्छी पकड़ रहती हैं ,और अधिक से अधिक  सीटों पर जीत दर्ज की जा सकें ,देश में समय के साथ क्षेत्रीय दल भी मजबूत होते जा रहे हैं।

क्षेत्रीय दल  राष्ट्रीय दलों को कमज़ोर कर रही है,क्षेत्रीय पार्टियों के मत प्रतिशत में बढ़ोतरी जरुर हुई है।
 लेकिन इनकी सीटों कि संख्या में भी कमी आई  है। क्षेत्रीय दलों  केवल राष्ट्रीय दलों के वोट नहीं काटते बल्कि अन्य पार्टियों के मतों को भी कम करते हैं। 

क्षेत्रीय पार्टियों के नेताओं का युवा वर्ग में काफी क्रेज़ हैं ,क्योंकि यह विकास और नौकरियों की बात करती है। क्षेत्रीय दलों के मुखिया जन समस्याओं को सुलझाने के लिए अलग तरीकों का इस्तेमाल करते हैं ,इसलिए वह लोंगो में काफी लोकप्रिय है ,लेकिन एक बात और है कि भारत की क्षेत्रीय पार्टियां विदेश नीति को भी प्रभावित कर रही हैं। 

देश के सबसे बड़े लोकतंत्र में क्षेत्रीय दल मजबूत पार्टियों या स्थिर सरकार देने में रुकावटें पैदा करती हैं। 



::::: सुगन्धा झा 

Sunday 30 March 2014

किसानों की दुरदशा


देश में चुनाव कि तैयारियां  पूरे जोर शोर से हो रही है ,लेकिन इसमें न किसान कही दिख रहा है ,और न ही किसानों से जुड़े मुद्दे। भारत कि 60 प्रतिशत आबादी कृषि और उससे जुड़े उद्योगों पर निर्भर करती है। देश का पेट पालने वाले किसानों पर किसी का ध्यान नहीं जाता है। पिछले कुछ सालों के आकड़े बताते हैं ,कि पांच लाख किसानों ने आत्महत्या की है ,जो देश के लिए चिंता का सबब है। 

देश के 42 प्रतिशत किसान अब खेती छोड़कर अन्य उद्योगों में जाना चाहते हैं ,क्योंकि खेती में अब पहले जैसा लाभ नहीं रह गया है। रासायनिक उर्वरकों और कीटनाशकों के ज्यादा प्रयोग से भी मिट्टी कि उर्वरता नस्ट हो रही है। रासायनिक तत्वों के अधिक उपयोग ने खेतों को जहरीला कर दिया है,जिससें खेती प्रभावित हो रही है। खेतों से जीवनयापन तभी सम्भव है ,जब मिटटी ,पानी ,जैव विविधता और खेती के नए तरीकों का विकास होगा। इसके साथ ही कम या ज्यादा वर्षा ,असमय वर्षा और जलवायु से भी प्रभावित हो रही हैं। 

आज दुनिया भर के देशों  में कृषि के लिए आधुनिक तकनीकों का इस्तेमाल हो रहा है ,लेकिन हमारे देश में इसकी शुरुआत भी नहीं हो सकी है। किसानों को ट्रैक्टर ,फसल काटने कि मशीनें भी आसानी से नहीं मिल पाती है। सरकार को चाहिए की वह ऐसे यंत्रों का आयत शुल्क ,उत्पादन शुल्क पर सब्सिडी उपलब्ध करवाए जिससे छोटे किसान भी उपकरणों को आसानी से खरीद सकें। 

आज के हालात में 28 प्रतिशत किसानों को ही बैंक ऋण मिल पाता  है ,क्योंकि उनके पास अपनी ज़मीन कि रजिस्ट्री है ,छोटे किसानों को बैंको से ऋण भी नहीं मिलता है। लगभग 60 से 70 प्रतिशत किसान आज कर्ज़ में डूबे हुए हैं ,या तो खेती के लिए निजी फाइनेंसरों से ऋण उठातें हैं ,जिनका ब्याज बहुत ज्यादा होता है। जब भी सामूहिक बीमा, स्वाथ्य बीमा या पेंशन की बात आती है ,तो किसानों को नजरअंदाज किया जाता है। पेंशन की रकम सम्मानजनक होनी चाहिए ,जिससे गुजारा आसानी से हो सकें। साल में बजट सत्र के दौरान एक कृषि बजट भी पेश हो जिससे गरीब किसानों  को फायदा पहुँचे। 

किसानों कि जरूरतें पूरा करने का वक़्त आ गया है ,लेकिन इस और किसी भी राजनीतिक पार्टियों का ध्यान नहीं जाता है। किसानों को अपने वोट की कीमत अब समझनी होगी। साथ ही एकजुट होकर राजनीतिक दलों पर दबाव भी बनाना जरुरी है, अगर अब किसान अपनी वोटों की कीमत नहीं समझे तो देश की अर्थव्यवस्था के हाशिए पर पहुँचे किसान देश कि राजनीती में भी हाशिए पर चलें जाएंगे। 

::::::::: सुगन्धा झा 


Tuesday 25 March 2014

"दल बदलू नेता "

चुनाव नजदीक आतें ही देश में नेता अपना दल बदलने में जरा भी संकोच नहीं करते हैं। 
जिसमें साल 2014 का लोकसभा चुनाव और भी रोमांचक होने वाला है,क्योंकि इस बार कि राजनीती मुद्दों पर नहीं बल्कि चेहरा विशेष की होकर रह गयी है। 
16 वी लोकसभा चुनाव में कई बड़े दिग्गजों ने अपनी पार्टी साथ ही अपनी सीट भी बदली हैं। चुनाव नजदीक आते ही तमाम नेताओं में जनता के हिमायती दिखने कि होड़ लग जाती हैं। इन नेताओ के व्यवहार और बोलचाल से ऐसा लगने लगता है, कि कुर्सी पाते  ही जनता के दुखों पर कोई जादुई छड़ी घुमाएंगे और सब दुःख दूर कर देंगे। 

लेकिन एक बात और है,कि इतने सालो के बावजूद यह लोगं आज भी जाति,धर्म ,संप्रदाय ,और क्षेत्र कि राजनीती से ऊपर नहीं उठ पाये हैं। आरोप प्रत्यारोप तो अपने चरम पर ही हैं ,इन सबके बीच विकास के मुद्दें पीछे रह गये हैं और जीतने कि चाहत आगे आ गई है। 

सीटों कि दावेदारी में यह खेल खुलकर सामने आ जाता है ,आलाकमान भी बस नेताओं पर दबाव बनती है ,कि सीटें जीतकर लाओं। सचमुच देश के दिशानिदेशक देश को दिशा देने में असफल हैं ,और अपनी सन्तुष्टि के लिए राजनीती करके देश को बरबाद करने पर तुलें हैं। 

लोकतंत्र के इस पड़ाव पर आम आदमी क्या करें और क्या नहीं यह प्रश्न उठना लाजिमी है ,आखिर क्यों हमारे नेताओं को चुनाव के वक़्त ही जनता कि याद आतीहैं ?
पांच साल तक वह जनता से दूरी बनाने में लगे रहते हैं। आखिर जनता किस वजह से इन नेताओं  का एतबार करें की कुर्सी मिलते ही यह भी और नेताओं कि तरह नहीं होंगे।                                                                                           

:==== सुगंधा झा 

Wednesday 19 March 2014

"राजनीती में युवा शक्ति "


2014 के लोकसभा चुनाव में पहली बार सबसे अधिक युवा मतदाता भाग लेंगे। चुनाव आयोग के मुताबिक पहली बार दस करोड़ लोग अपने मताधिकार का प्रयोग करेंगे। चुनाव आयोग कोई भी आकड़ा जारी नहीं करता कि देश में कितने वोटर हैं ,लेकिन उसने इस बार यह बताया कि पांच साल में नए वोटरों में 18 ,19 साल वालो कि संख्या कितनी हैं। 

भारत के युवाओं का तेजी से राजनीती कि तरफ झुकाव बढ़ा है ,इनमें  से ज्यादा ऐसे युवा हैं। जो राजनीती में सक्रिय भूमिका निभा रहे हैं , या निभाने की सोच रहे हैं। पांच राज्यों के विधानसभा चुनावों  में युवाओं ने अपने मताधिकार का सबसे अधिक इस्तेमाल किया जिस वजह से मतदान का प्रतिशत  भी बढ़ा है। 

युवाओं को जगाने का काम अन्ना आन्दोलन ने बखूबी किया ,भ्रस्टाचार के खिलाफ जनलोकपाल के लिए अन्ना का आन्दोलन दिल्ली में हुआ।जिससें  लाखों  युवा जुड़े ,देश का हर नौजवान उस आंदोलन का गवाह बना।16 दिसंबर 2013 में दिल्ली गैंगरेप ने युवाओं को फिर  से सड़क पर उतरने को मजबूर कर दिया। इस घटना के बाद लाखों  युवक -युवतियां  दिल्ली कि सड़कों पर "निर्भया "के लिए इंसाफ कि लड़ाई लड़ने को फिर एकजुट हुए ,इसके बाद आम आदमी पार्टी युवाओं  को राजनितिक मंच देने में कामयाब हुई। 

दिल्ली में आम आदमी पार्टी का उदय भी युवाओं  के जोश का परिणाम हैं, दिल्ली में आम आदमी पार्टी को सबसे ज्यादा युवाओ का 17 ,18 फीसदी मत प्राप्त हुआ। जिससे यह सवाल उठना लाजमी हैं। 
आखिर युवाओं  ने आम आदमी पार्टी को ही इतनी तरजीह क्यों दी ? 

शायद इसलिए क्योंकि  आम आदमी पार्टी ने युवाओं  को राजनीती में आने का और अपनी भूमिका निभाने का मौका दिया। पार्टी ने सोशल मीडिया का व्यापक इस्तेमाल किया जिससे प्रभावित  हो कर बड़ी संख्या में युवा इस पार्टी से जुड़े। आम आदमी पार्टी अपने उठाए मुद्दों कि बदौलत युवाओं को अपनी और खींचने में कामयाब रही। जिसमें भ्रस्टाचार ईमानदारी , महँगाई ,पानी महिला सुरक्षा अहम मुद्दे थें। 

राजनितिक पार्टियां युवाओं का इस्तेमाल चुनाव प्रचार या पार्टी के कार्यों में करती रही हैं ,लेकिन जब बात चुनाव लड़ने की आती हैं  तो कम अनुभव का हवाला दिया जाता है। लेकिन अब की  बार यह बदलाव नजर आ रहा है ,बड़ी राजनितिक पार्टियां भी अपने से युवाओं को जोड़ने का काम कर रही हैं। अब सभी दलों को पता चल चुका है।युवाओं कि उपेक्षा करके आप आगे नहीं बढ़ सकते हैं। इसलिए सभी बड़ी पार्टियां युवाओं को अपने साथ जोड़ने का काम कर रही है ,साथ ही सोशल मीडिया का भी जम कर इस्तेमाल करती हैं।

नरेंद्र मोदी और राहुल गांधी युवाओं से सीधा संवाद कर रहे हैं। बड़े नेता
कॉलेज विशवविद्यालय में युवाओं को सम्बोधित कर रहे हैं। राजनीती में बड़ा बदलाव युवा शक्ति कर सकता है ,क्योंकि अब सभी को पता चल चुका है, कि युवा शक्ति के बिना देश का विकास सम्भव नहीं वो इसलिए क्योंकि आज का युवा कल का भविष्य हैं।
——सुगंधा झा

Monday 17 March 2014

रंगों का त्यौहार होली


होली रंग विरंगा मस्ती भरा त्यौहार हैं। 

इस दिन लोंग अपने सारे  गीले शिकवे भुलाकर एक दूसरे को गुलाल लगाते हैं ,साथ ही गले मिलते हैं। फाल्गुन मास की  पूर्णमासी को यह त्यौहार बड़े ही उत्साह के साथ मनाया जाता हैं। होली के साथ अनेक पौराणिक  कथाएँ जुड़ी हुई हैं। होली से एक दिन पहले होलिका दहन किया जाता है।  

होलिका नाम कि एक राक्षसी थी,जिसे भगवान  शिव से वरदान प्राप्त था कि अग्नि  उसे जला नहीं सकती। 
लेकिन उसनें  अपने वरदान का दुरूपयोग किया। होलिका के भाई हिरण्यकश्यप का पुत्र था प्रहलाद जो भगवान         विष्णु का परम भक्त था, जिससे हिरण्यकश्यप प्रहलाद से नफरत करता था साथ ही उसे मरना चाहता  था। उसने अपनी बहन होलिका को आज्ञा दी कि वह प्रह्लाद को अपनी गौद में बिठा कर अग्नि में जला दें। लेकिन भगवान  विष्णु की  कृपा से प्रह्लाद तो बच गया किन्तु होलिका जल कर भस्म हो गई।  शिवजी ने होलिका को आशीर्वाद दिया ,तब से होलिका दहन पर्व के रूप में मनाया जाने लगा ,साथ ही शिव ने कहा कि  उस भस्म को जो व्यक्ति अपने शरीर में लगाएगा उसे शुभ  फल प्राप्त होगा ,ऐसा  अनेक पुराणों  में वर्णित हैं। 

होली त्यौहार उत्तर  भारत  में विशेष  रूप से मनाया जाता है। भारत के अनेक प्रांतो में लोंग होली विभिन्न रूप से मानते हैं,साथ ही यह त्यौहार नई  फसल होने  कि खुशी  में भी मनाया जाता  हैं। 

यह कथा इस बात का संकेत देती है कि ,आज भी सच्चाई कि जीत होती है।

आज भी पूर्णिमा के दिन होलिका दहन किया जाता हैं और अगले दिन सब लोंग एक दूसरे पर रंग डालते है और गुलाल लगाते  है। यह रंगो का त्यौहार है इस दिन लोंग  अपने दोस्तों रिश्तेदारों के साथ जमकर होली खेलते हैं। 
होली के दिन घर कि महिलाएं तरह तरह के व्यंजन बनाती  हैं ,जिसमें गुजिया ,मालपुआ,कांजी ,ठंडाई बेहद स्पेशल खानपान हैं। शाम को सभी स्नान करके नए वस्त्र पहन कर नाते रिश्तेदारों  से मिलने जाते हैं ,साथ ही खूब नाच गाना होता है। 

ब्रज की होली ,मथुरा की  होली ,वृंदावन की  होली ,बरसाने की होली ,काशी  कि होली पुरे उत्तर भारत में मशहूर है। होली उत्सव मनाने के लिए देशी विदेशी पर्यटक भी ब्रज पहुचते हैं ,सब मिलकर इस उत्सव का लुत्फ़ उठाते  हैं। 
--सुगंधा झा 

Thursday 6 March 2014

बदहाल प्रदेश (उत्तर प्रदेश )


उत्तर प्रदेश में सपा सरकार के आने का एक ही कारण था ,बसपा के राज से छुटकारा। आज उत्तर परदेश में अपराधियों  के हौसले बुलंद है। परंतु सपा सरकार ने भी जनता कि उम्मीदों को छला हैं। जिन उम्मीदों  के साथ लोगों ने सपा को सत्ता सौपी और युवा मुख्यमंत्री का चुनाव किया कि हो सकता है ,यह प्रदेश में शांति, न्याय व्यवस्था को सुनिश्चित करेंगे ऐसा दीखता नहीं है। 

युवा मुख्यमंत्री के शासन  में उनके अपने ही कार्यकर्ता बेलगाम हो गये ,जिसके चलते राज्य में गुंडागर्दी बढ़ी हैं। 
स्थिति यह है कि अधिकतर अपराधों के तार किसी न किसी रूप से सत्तारूढ़ पार्टी से जुड़ते  हैं।कभी मुजफ्फरनगर में दंगे तो कभी गन्ना किसानों का आक्रोश ,दंगे के बाद जब हल्ला मचा तो कुछ नेताओं को दंगा भड़काने के आरोप में गिरफ्तार किया गया। लेकिन यहा भी प्रदेश सरकार  ने पक्षपात पूर्ण रवैया अपनाया। अपनी पार्टी के कार्यकर्ताओं के खिलाफ कोई ठोश कदम  नहीं उठाए। 

दंगा पीड़ितो को रहत मिले न मिले ,लेकिन सूबे कि सरकार को सैफई  में महोत्सव करना जरुरी था ,तो आधे दर्जन से ज्यादा नेता विदेश दौरे पर रवाना हुए। आज़म खा साहेब कि भैंसे  गुम  हुई, तो प्रदेश के मंत्री साहेब ने s.h.o को लाइन हाज़िर कर दिया। 
हाल ही में  सपा विधायक (इरफ़ान सोलंकी )कि मेडिकल छात्रों के साथ हाथापाई हुई ,तो सरकार ने जांच  का हवाला दिया। 

जिसकी वजह से डॉक्टरों कि हड़ताल हुई ,तीन  दर्जन से ज्यादा लोग वगैर इलाज बे मौत  मर गये ,इसका ज़िम्मेदार कौन हैं ?
मुलायम सिंह हिदायत देते रहते हैं ,अपनी सरकार के मंत्रियों  को जो सिर्फ एक दिखावा हैं, और कुछ नहीं। 

जनता बेवज़ह  ही पुलिस को दोष देती रहती है ,अगर सत्ता ही निरंकुश हो जाए ,तो प्रशासन  क्या करेगा ?
भारत जैसे देश के इतने बड़े राज्य उत्तर प्रदेश में क्या सत्ता का यही मतलब है। आखिर कैसे नेता बनते ही कुर्सी मिलते ही यह लोग इतने संवेदनहीन हो जाते हैं।
 आज उत्तर प्रदेश कि जो स्थिति है उस जिम्मेदारी से अखिलेश सरकार खुद को बचा नहीं सकती हैं। 
सत्ता नशा का नाम नहीं ,बल्कि ज़िम्मेदारी का नाम हैं।
सुगंधा झा 

Friday 28 February 2014

"आप से सीखे पार्टियां "

                                                                                                                                                            राजनीती के नए अध्याय कि शुरुआत
''अरविंद केजरीवाल और टीम'' ने किया, जिसमें उनका साथ दिया यहाँ की आम जनता ने, उन्होंने राजनीती में बढ़चढ़ कर भाग लेने के लिए यहाँ के लोंगो में एक जोश का संचार किया। जिससे लोंगो ने सिस्टम को बदलने कि ठान ली, उनकी टीम के चंद युवा चेहरों ने सत्ता के गलियारों में तहलका मचा दिया। कई सालों से सत्ता को अपनी जागीर समझने वाले नेताओं के पैरों तले ज़मीन खिसक गयी।
"आम आदमी पार्टी" में लोंगो को उम्मीद दिखाई दी, इस पार्टी ने पहले दिल्ली में सत्ता आर्जित की, और अब लोकसभा चुनाव पर इसका ध्यान है। पढ़े लिखे वर्ग को राजनीती में आने पर जोर दिया, ''आम आदमी पार्टी'' राजनीती में एक क्रांति लेकर आई है।
जिस तरह से इस पार्टी ने दिल्ली में सरकार बनाई, और चंद दिनों के भीतर ही फैसले लेने शुरू किए थे, कुछ ही समय हुआ की, अस्थायी कर्मचारी और अन्य समस्याओं से परेशान लोग ''अरविंद केजरीवाल'' के पीछे पड़ गए।
क्या इससे से पहले 15  सालों तक सत्ता पर काबिज़ कांग्रेस की मुख्यमंत्री ''शीला जी'' के साथ ऐसा करने की हिम्मत जुटा पाए थे ?
''केजरीवाल'' खुले में सबकी समस्याओं को सुन रहे थे, तो इसका अर्थ यह नहीं की सभी राजनीतिक पार्टियाँ और विपक्षी नेताओं उनके काम में हस्तक्षेप करे।
दूसरी पार्टियाँ तो उन्हें ऐसे तंग कर रही थी कि, जैसे उन्होंने अपने शासन काल में, जनता की भलाई के लिए दिन-रात एक कर दिया हो। सत्ता किसी कि जागीर नहीं यह बात इस पार्टी के लोगों ने साबित कर दिया। आम आदमी पार्टी लोगों के लिए उम्मीद लेकर आई है। लेकिन जिस तरह से इनके नेताओं के साथ दुर्व्यवहार होता है ,तो कभी पार्टी दफ्तर पर तोड़फोड़ होता है ,उससे लगता है कि कुछ शैतानी ताकतें इस पार्टी को आगे बढ़ते हुए नहीं देखना चाहती हैं।
सच्चाई यह थी की ''आप'' ने ना तो ख़ुद माल खाया और न ही किसी को ऐसा करने मौक़ा दिया। यही दुःख विपक्षियों को सता रही थी। इसलिए उन्होंने सोचा की किसी तरह से इस रोड़े ''आप'' की सरकार को हटाई जाए। ''आप'' सरकार इसी कुटिल नीति कि भेंट चढ़ गई।
—सुगंधा झा 

Tuesday 11 February 2014

मुज्ज़फरनगर का दर्द

जलता रहा मुज्ज़फरनगर मरते रहे लोंग ,सभी पार्टी के नेता अफसर  तमाशबीन बनकर सबकुछ देखते रहे। लोंगो को शांत करने के बजाय तमाम नेता जी भड़काऊ भाषण देते रहे ,जिससे दंगा और भडका ,कई गॉव तबाह हुआ ,कितनी मौतों हुई,उस पर भी हमारे देश के नेता राजनितिक रोटिया सेकने से बाज नहीं आए। दंगो को शांत करने के बजाय राज्य और केन्द्र  सरकार एक दूसरे पर दोषारोपण करते रहे ,अभी भी मामले को निपटाने के बजाय उत्तर प्रदेश कि सरकार कि तरफ से कोई ठोस कदम उठते दिखे नहीं ,बल्कि इतने समय बीतने के बाद भी हजारों लोंग अपने छोटे बच्चों को लेकर ठण्ड में मरने को तैयार है ,लेकिन खौफ के चलते अपने घर लौटना नहीं चाहते ,उस पर नेताजी का बेतुका बयान कि , यह लोग विपक्षी पार्टियों के भेजें हुए हैं ,या पाँच  सात लाख मुआवजे के चलते यहा रह रहे है ,कोई नेताजी से यह सवाल पूछता  कि इतनी ठण्ड में  इंसान पैसे के लिए अपनी और अपने बच्चों कि जान के साथ खिलवाड़ क्यों करेगा ? साथ ही उत्तर प्रदेश के मुख्य  सचिव का कहना कि ठण्ड से मौतें होती तो साइबेरिया में कोई नहीं बचता। सचिव साहब सबको पता है, कि ठण्ड से मरने के लिए साइबेरिया जाने  कि जरुरत नहीं है, क्योकि ठण्ड से सबसे ज्यादा मौतें उत्तर भारत में ही होती हैं। जिसमे मौत का अकड़ा उत्तर प्रदेश का सबसे ज्यादा है ,आखिर कैसे हमारे देश के नेता अफसर इतने संवेदनहीन हो जाते हैं ,आम लोंगो कि समझ से परे हैं। जो नेता चुनती है कि ,वह उनका नेतृत्व करेगा ,कुर्सी मिलते ही नेताजी जनता को कुछ नहीं समझते हैं ,हर कदम पर जनता कि उपेक्षा करते है।जहा उत्तर प्रदेश सरकार को मुज्ज़फरनगर को दोबारा बसाना चाहिए था ,वहा नेताजी सैफई में महोत्सव मना रहे थे ,मंत्रियो के  विदेश दौरे पर पैसा लगा रहे थे। यही सरकार प्रदेश के विकास के लिए फण्ड का रोना रोती रहती है। उत्तर प्रदेश में यह कौन सा समाजवाद है समझ नहीं आता हैं। 

Monday 3 February 2014

"शर्मशार इंसानियत "

जब देश गणतंत्र दिवस कि तैयारियों में मस्त था ,उसी समय पश्चिम बंगाल के बीरभूम में एक बेटी कि इज्जत को बेआबरू किया जा रहा था।                                                                                                               उसके साथ ऐसा बर्ताव सिर्फ इसलिए हुआ क्योंकि  उसका कसूर सिर्फ इतना था कि ,उसने दूसरी जाति के लड़के से शादी कर ली थी। पंचायत के निर्देश पर उस युवती के साथ सामूहिक दुष्कर्म किया गया ,जिसने एक बार फिर इंसानियत को शर्मशार कर दिया। किस कानून में इस तरह कि सजा का प्रावधान है ?   और ऐसी सजा सुनाने का हक़ पंचायत को किसने दिया । सचमुच बीरभूम कि इस पंचायत ने तो गणतंत्र के मायने ही बदल दिए। जिस देश कि महिलाओं को कभी सती , सावित्री  का दर्ज दिया जाता था , आज उस देश कि महिलाए और बेटियां कही भी सुरक्षित नहीं है , स्त्री समाज का जीवन नारकीय बन गया है , वह भी चंद समाज के ठेकेदारों कि वजह से।  आखिर किसी भी लड़की के दामन पर दाग लगाने का हक़ इन जैसे लोंगो को किसने दिया है ?                                                       इस तरह कि घटना देख सुन कर लगता है कि ,भारत में भी तालिबानी संस्कृति पनप रही हैं। ऐसी घटनाओं को रोकने के लिए इस तरह कि पंचायत और अपराधियों पर अंकुश लगाने कि सख्त जरुरत है। ऐसी घटनाएं हमारे लोकतंत्र और इंसानियत को बदसूरत बनाती हैं। पश्चिम बंगाल अपनी संस्कृति और परम्परा के लिए जाना जाता था,लेकिन आज हालात कुछ और हैं ,आए दिन यहा कोई न कोई घटना होती है। जिससे ऐसा लगता है कि यहां भी अपराधियों के हौसलें बुलंद होते जा रहे हैं,इस घटना ने सरकार और पुलिस प्रशासन पर प्रशन चिन्ह लगा दिए हैं।                                                                                                                               सुगंधा झा