Saturday 21 September 2013

" बंटवारे की राजनीति "

तेलंगाना को भारत का 29वां राज्य घोषित करने के बाद से कई नए राज्यों को बनाने की मांग उठने लगी है. आखिर इसे क्या कहे वोटों के लिए गन्दी राजनीति.

तेलंगाना को अलग राज्य बनाने की मांग कई सालों से की जा रही थी, तब इसको अलग राज्य का दर्ज़ा क्यों नहीं दिया गया. जबकि 2014 के लोकसभा के चुनाव होने से चंद महीने पहले ही इसे अलग राज्य का दर्ज़ा मिल रहा है. 

2014 लोकसभा चुनाव में फायदा उठाने के लिए यह कदम उठाया गया है, क्योकि आंध्र प्रदेश में लोकसभा
की 42 सीट है जिसमे की 17 सीट तेलंगाना क्षेत्र की है. इनमे से 12 सीटो पर कांग्रेस का कब्ज़ा है.

इसी तरह विधानसभा की 294 सीटों में से 119 तेलंगाना से आती हैं जिसमें 50 से ज्यादा सीटों पर कांग्रेस का कब्ज़ा है.

कांग्रेस को तेलंगाना से ज्यादा अपनी सीटों की फ़िक्र है. केवल अपनी राजनैतिक रोटी सेंकने के लिए ये कुछ भी कर सकते है. कहां इन लोगों को देश की एकता अखंडता को बनाये रखना चाहिए जबकि ये लोग देश को ही टुकड़े करने पर तुले है.



आखिर इस देश को कितने राज्यों की जरुरत है...विभाजन अपने आप में ही त्रासदी है चाहे वह देश का हो या राज्यों का बंटवारा. यह हमारी एकता अखंडता पर सवालिया निशान लगाता है.

तेलंगाना बनने से कई नए राज्यों को अलग करने की मांग की जा रही है. महाराष्ट्र में विदर्भ, मुंबई, बंगाल में गोरखालैंड, असम में बोडोलैंड और कर्बी...बिहार में मिथिलांचल... उत्तर प्रदेश में बुंदेलखंड और पूर्वांचल को अलग करने की मांग तेज हो गयी है.

हो सकता है कि आने वाले समय में ज़िलों में भी बंटवारे की मांग तेज़ हो जाये...यह सिलसिला तो थमने से रहा.

राज्यों में क्यों कुछ इलाके पिछड़े रह जाते है यह एक चर्चा का विषय है. क्यों हमलोग देश को एक सूत्र में पिरों कर नहीं रख सकते, हर मुद्दे पर राजनीति ठीक नहीं है अगर देश को जोड़ने वाले ही इसे तोड़ने लगेंगे तो इस विशाल भारत देश का क्या होगा हम सोच भी नहीं सकते है.

आज़ादी के समय भारत से पाकिस्तान का बंटवारा और जम्मू कश्मीर को लेकर हम आज भी लड़ रहे हैं तो फिर क्यों देश के भीतर भी राज्यों और जिलों को बांटने की नीति अपनाई जा रही है. यह कहां तक सही है.

उन्हें समृद्ध बनाने के लिए राज्य और केंद्र सरकारों पर दबाव बनाना चाहिए ना कि विभाजन की नीति अपनानी चाहिए. विभाजन ही हर समस्या का हल होता तो सभी छोटे राज्य सम्पन होते. एक बार झारखण्ड, उत्तराखंड, छतीसगढ़ की स्थिती देख ली जाये तो सबकुछ खुद ब खुद समझ में आ जायेगा.

अगर इसी तरह से देश के टुकड़े होते रहे तो इस देश में 100 राज्य भी कम पर जायेंगे. अभी भी केंद्र सरकार के पास 50 नए राज्यों को बनाने की मांग का प्रस्ताव लंबित है. इस और ध्यान देने की बहुत जरुरत है.

-सुगंधा झा

"गरीबों का मजाक "

क्या केन्द्र की कांग्रेस सरकार गरीबों का मजाक उड़ाने पर अड़ी हुई है. 1977 में कांग्रेस का स्लोगन था गरीबी हटाओ, आज के समय को देख कर लगता है यही लोग चाहते है कि गरीबों को ही हटाओ.

क्या सोच समझ कर ये लोग बोलते हैं कि 27 और 33 रूपए कमाने वाले लोग गरीब नहीं है. क्यों ये गरीब और गरीबों का मजाक बना रहे हैं.

योजना आयोग गांव में 27 रूपए तथा शहर में 33 रूपए से अधिक खर्च
करने वाले लोगों को गरीब नहीं मानता है, इससे कम खर्च करने वाले व्यक्ति को गरीबी रेखा से नीचे माना गया है.

भारत सरकार का दावा है कि 2004 से अब तक देश में गरीबी एक तिहाई कम हुई है, लेकिन क्या सचमुच में यें आंकड़े भरोसा करने लायक हैं.

देश की 21.9 फ़ीसदी आबादी गरीब है, गरीबों की संख्या 26.93 करोड़ है जिसमें ग्रामीण क्षेत्र में 21.65 करोड़ एवं शहरी क्षेत्र में 5.28 करोड़  गरीब हैं.

दुनिया में भूखे लोगों वाले 79 देशों की सूची में भारत 75 वें नंबर पर है. संयुक्त राष्ट्र खाद्य और कृषि संगठन के मुताबिक 2012 में भारत में 21.7 करोड़ लोग कुपोषित थे, सिर्फ इतना ही नहीं पाँच साल से कम उम्र के करीब आधे बच्चे कुपोषित है और यह सिलसिला कई सालों से चला आ रहा है.

इसके बाद भी कई अर्थशास्त्री मानते हैं कि भारत में सरकारी योजनाओं के दम पर गरीबी कम हुई है. आज के समय में 27 और 33 रूपए में क्या आता है, पिछले दिनों माननीय सांसद राशिद मासूद और राजबब्बर ने तो यहां तक कहा कि दिल्ली और मुंबई में 5 और 12 रूपए में भरपेट भोजन मिलता है तो राहुल गाँधी गरीबी को मानसिक अवस्था बताते हैं.

क्या कभी उन्होंने यह सोचा की आज के समय में पाँच रूपए में एक कप चाय नसीब नहीं तो भोजन कहां से मिलेगा, खुद तो ये लोग एक दिन के भोजन पर 7500 रूपए खर्च करते है और लोगों को गरीब न कहलाने को बोलते है.

रही बात खर्च के आधार पर गरीबी को नापने की तो जरुरी चीजों की कीमतें लगातार बढ़ती है जब इन वस्तुओं के मूल्य बढेंगे और आमदनी जस की तस रहेगी तो जाहिर सी बात है गरीबों की संख्या भी बढ़ेगी.

राष्ट्र के 70 करोड़ लोगों के जीवनयापन से जुड़े सवाल को चंद राजनेता लोग मुद्दा बनाकर अपना फायदा उठाते हैं. टिप्पणी करते समय ये लोग अपनी मर्यादा को पार क्यों करते है?

आम जन के समझ से परे है कि हरियाणा के झज्झर में 2009 में बरबाद हुए फसलों के मुआवज़े के रूप में किसानो को 2 और 3 रूपए के चेक दिए गये, सरकार आखिर इससे क्या साबित करना चाहती है. प्रशासन का कहना है कि लोगों को उनकी बरबाद फसल के अनुपात से मुआवज़ा दिया गया है.

आखिर ये लोग क्या साबित करना चाहते हैं. गरीबी न हटा सको तो कम से कम गरीबों का मजाक तो मत उड़ाओ. अब तो ऐसा लगता है भारत में गरीब कहलाना ही शर्म की बात है.


क्या केन्द्र की कांग्रेस सरकार गरीबों का मजाक उड़ाने पर अड़ी हुई है. 1977 में कांग्रेस का स्लोगन था गरीबी हटाओ, आज के समय को देख कर लगता है यही लोग चाहते है कि गरीबों को ही हटाओ.

क्या सोच समझ कर ये लोग बोलते हैं कि 27 और 33 रूपए कमाने वाले लोग गरीब नहीं है. क्यों ये गरीब और गरीबों का मजाक बना रहे हैं.

योजना आयोग गांव में 27 रूपए तथा शहर में 33 रूपए से अधिक खर्च
करने वाले लोगों को गरीब नहीं मानता है, इससे कम खर्च करने वाले व्यक्ति को गरीबी रेखा से नीचे माना गया है.

भारत सरकार का दावा है कि 2004 से अब तक देश में गरीबी एक तिहाई कम हुई है, लेकिन क्या सचमुच में यें आंकड़े भरोसा करने लायक हैं.

देश की 21.9 फ़ीसदी आबादी गरीब है, गरीबों की संख्या 26.93 करोड़ है जिसमें ग्रामीण क्षेत्र में 21.65 करोड़ एवं शहरी क्षेत्र में 5.28 करोड़  गरीब हैं.

दुनिया में भूखे लोगों वाले 79 देशों की सूची में भारत 75 वें नंबर पर है. संयुक्त राष्ट्र खाद्य और कृषि संगठन के मुताबिक 2012 में भारत में 21.7 करोड़ लोग कुपोषित थे, सिर्फ इतना ही नहीं पाँच साल से कम उम्र के करीब आधे बच्चे कुपोषित है और यह सिलसिला कई सालों से चला आ रहा है.

इसके बाद भी कई अर्थशास्त्री मानते हैं कि भारत में सरकारी योजनाओं के दम पर गरीबी कम हुई है. आज के समय में 27 और 33 रूपए में क्या आता है, पिछले दिनों माननीय सांसद राशिद मासूद और राजबब्बर ने तो यहां तक कहा कि दिल्ली और मुंबई में 5 और 12 रूपए में भरपेट भोजन मिलता है तो राहुल गाँधी गरीबी को मानसिक अवस्था बताते हैं.

क्या कभी उन्होंने यह सोचा की आज के समय में पाँच रूपए में एक कप चाय नसीब नहीं तो भोजन कहां से मिलेगा, खुद तो ये लोग एक दिन के भोजन पर 7500 रूपए खर्च करते है और लोगों को गरीब न कहलाने को बोलते है.

रही बात खर्च के आधार पर गरीबी को नापने की तो जरुरी चीजों की कीमतें लगातार बढ़ती है जब इन वस्तुओं के मूल्य बढेंगे और आमदनी जस की तस रहेगी तो जाहिर सी बात है गरीबों की संख्या भी बढ़ेगी.

राष्ट्र के 70 करोड़ लोगों के जीवनयापन से जुड़े सवाल को चंद राजनेता लोग मुद्दा बनाकर अपना फायदा उठाते हैं. टिप्पणी करते समय ये लोग अपनी मर्यादा को पार क्यों करते है?

आम जन के समझ से परे है कि हरियाणा के झज्झर में 2009 में बरबाद हुए फसलों के मुआवज़े के रूप में किसानो को 2 और 3 रूपए के चेक दिए गये, सरकार आखिर इससे क्या साबित करना चाहती है. प्रशासन का कहना है कि लोगों को उनकी बरबाद फसल के अनुपात से मुआवज़ा दिया गया है.

आखिर ये लोग क्या साबित करना चाहते हैं. गरीबी न हटा सको तो कम से कम गरीबों का मजाक तो मत उड़ाओ. अब तो ऐसा लगता है भारत में गरीब कहलाना ही शर्म की बात है                                                      सुगंधा  झा                                                                                                                                              पूर्व प्रकाशित :http://topnewsindia.com/

Wednesday 18 September 2013

बेटा-बेटी का फ़र्क

आज के समय में भी बेटा-बेटी में इतना फ़र्क क्यों होता है?

जहाँ लडकियां आज किसी भी क्षेत्र में पीछे नहीं है वहाँ पर इस तरह का भेदभाव ठीक नहीं है. बेटा-बेटी में फ़र्क करना कोई समझदारी नहीं है.

घर में अगर बेटी है तो इसकी ख़ुशी बेटों की तरह मनानी चाहिये. वह बेटों से ज्यादा आज्ञाकारी होती है.

बेटी की ख़ुशी से ही हर घर फलता-फूलता है, उनके लिए दिलों में सम्मान होना चाहिये.

अभी हाल ही में हरियाणा के गुडगाँव में बेटा पैदा न
करने पर पति ने अपनी पत्नी की हत्या कर दी. यह मामला कोई नया नहीं है, आमतौर पढ़े- लिखे सुखी सम्पन परिवार वाले ही इस तरह का भेदभाव करते हैं.

अगर बेटियों को समान शिक्षा और तरक्की के समान मौके मिलें तो वो समाज की तस्वीर बदल सकती हैं. माता-पिता अपने बेटों को बचपन से ही महिलाओं का सम्मान करना सिखाएं, उन्हें बताएं कि लड़कियां उनसे किसी मामलें में पीछे नहीं हैं.

बेटियों को समझाना होगा कि सिर्फ़ शादी करना और अच्छी पत्नी बनना ही उनके जीवन का लक्ष्य नहीं हैं. उन्हें भी पुरुषों की तरह महत्वाकांक्षी बनने व प्रतियोगिता में सबको पछाड़ने का हक़ हैं.

बेटियों की शिक्षा से ही समाज में बदलाव आ सकता है, रुढ़िवादी सोच के कारण आज भी कई जगहों पर बेटा-बेटी में भेदभाव हो रहा है.

जब तक समाज इस संकीर्ण मानसिकता से ऊपर नहीं उठता तब तक इस तरह का भेदभाव मिटने से रहा.

माता-पिता क्यों अपनी बेटियों पर दवाब बनाते हैं कि वे अपनी शादी बचाने और घर की शांति बनाए रखने के लिए समझौतें करें.

आखिर बेटियां ही क्यों समझौते और तरक्की के नाम पर अपने करियर को त्यागें. यह सीख बेटो को क्यों नहीं दी जाती हैं?

बेटी बचाओ अभियान को जोर पकड़ने की अब बहुत जरूरत हैं. बेटियां बोझ नहीं बल्कि बेटियां घर की लक्ष्मी होती है. वह एक नहीं बल्कि दो- दो घरों की बागड़ोर संभालती है.


यह समस्या इतनी बढ़ गयी है कि इसे रोकने के लिए एक क्रांति की जरूरत है. नहीं तो हमारे देश की स्थिति भी चीन जैसी होगी जहां लड़कों को शादी के लिए लड़कियां नहीं मिल रही हैं.

इसलिए जितना जरूरी बेटा हैं उतनी ही बेटी भी जरूरी है.

कन्या भ्रूण हत्या रोकने के लिए लोगों की सोच में बदलाव जरूरी है. इसके बिना प्रयास निरर्थक है. यह शुरुआत हमें अपने घर और आसपास से ही करनी चाहिए.

पंजाब और हरियाणा से जल्द सबक नहीं लिया तो समस्त देश कन्या भ्रूण हत्या के दुष्परिणाम भुगतेंगे.

-सुगंधा झा

महिलाओं के साथ बढ़ते अपराध

आज के समय में महिलाएं खुद को कहीं भी सुरक्षित महसूस नहीं कर रही हैं. खासतौर पर बड़े शहरों का हाल तो और भी ज्यादा चिंताजनक है.

सोलह दिसम्बर को दिल्ली गैंगरेप के बाद हुए जोरदार आंदोलन और प्रदर्शन ने लोगों को झकझोर के रख दिया. इसके बाद सख्त कानून बनाने को लेकर चर्चाएं हुई. जिससे लगा कि अब देश में महिलाओं की स्थिति ठीक हो जाएगी. लेकिन हाल ही में मुंबई में एक महिला पत्रकार के साथ
जो कुछ हुआ उससे सारा देश सकते में आ गया.

महिला पत्रकार के साथ सामूहिक बलात्कार बताता है कि हम विचारों की आधुनिकता की चाहे जितनी भी बातें कर ले...लेकिन महिलाओं के प्रति पुरुषों का रवैया जस का तस है.

मेरा सवाल पूरे समाज से है कि जिस देश की महिलाओं को कभी सती, सावित्री का दर्जा दिया जाता था. वहां आज महिलाओं के साथ इस तरह के जघन्य अपराध रोज क्यों हो रहे हैं.

आखिर महिलाओं के प्रति लोगों का नजरिया इतना क्यों गिर रहा हैं? अपराध होने के बाद कुछ दिनों तक सरकारी महकमा, स्वायत्त संगठन, प्रशासन बेहतर सुरक्षा का वादा करते हैं. लेकिन कुछ दिनों तक मामला गर्म रहने के बाद ठंडे बस्ते में चला जाता है. कुछ समय तक इन अपराधों पर जोर-शोर से चर्चा होती हैं फिर वही सब होने लगता है.

स्त्री समाज का जीवन नारकीय हो रहा है इसका जिम्मेदार कौन हैं? ऐसे अपराधों में अपराधी से लेकर प्रशासन और समाज की मानसिकता सभी दोषी है, इसलिए हर स्तर पर प्रयास जरुरी है. 

देश में महिलाओं की सुरक्षा के लिए ऐसा कानून बने, जिससे वह खुद को सुरक्षित महसूस कर सके…कठोर कानून बनाने और उसे लागू करने की अब बहुत जरूरत हैं, जिससे कि अपराधी ऐसा कुछ करने से पहले सौ बार उस सजा के बारे में सोचे.


-सुगंधा झा

Sunday 1 September 2013

मिड डे मील योजना

मिड डे मील योजना के नाम पर बच्चों की जान के साथ खिलवाड़ होता है, जबकि यह योजना काफी समय से चली आ रही है। जिसमें की बारह लाख स्कूलों में करीब साढ़े दस करोड़ बच्चों को दोपहर का भोजन दिया जाता है।
केंद्र सरकार इस योजना में करीब पंद्रह हज़ार करोड़ खर्च करती है, इसे बनाने के लिए सताईस लाख रसोएये  काम करते हैं। केंद्र सरकार की इस योजना को सफल बनाने के लिए राज्य की सरकारों को पूरा धयान देना चाहिये, क्योंकि ये उनकी ज़िम्मेदारी है। 

पिछले दिनों बिहार के छपरा में मिड डे मील खाने से तेईस बच्चों की मौत हुई, और पहले भी कई बार पढने और सुनने में आया है, कि मिड डे मील में ख़राब भोजन परोसा गया है, जिसे खाने के बाद बच्चे बीमार हुए हैं। इसके कई कारण हो सकते हैं ,पहला तो यह की जो कर्मचारी खाना पकाते हैं, उनको कम वेतन मिलता है, जिससे की वह बेमन से काम करते है, इसलिए रसोईयों की तन्खा बढाई जाये ,दूसरी वजह कर्मचारियों के पास ज्ञान का अभाव है इसलिए वे कीटनाशक के डिब्बे का इस्तेमाल खाना बनाने में कर गये ,ऐसे में उन्हें खाना बनाने के तौर तरीके बताये जाये ,,जहाँ खाना बनता है और जिन बर्तनों में पकता है वहा पूरी साफ सफाई का धयान रखा जाये ,,,तीसरा कारण यह है क़ि  हमारे यहा सामाजिक निगरानी की व्यवस्था नहीं है स्थानीय लोंगो की भागीदारी इसमें होनी चाहिए। सामान से लेकर खाना बनाने और परोसने तक की ज़िम्मेदारी एक निरीक्षक अधिकारी की मौजूदगी में हो। जो वस्तुओं की जाँच परख कर मिड डे मील तैयार करवाए। क्योंकि बच्चें देश का भविष्य होते हैं इनकी जान के  साथ खिलवाड़ उचित नहीं हैं।
--सुगंधा झा