Monday 2 December 2013

आम आदमी के उम्मीदों कि पार्टी

अन्ना हज़ारे के जनलोकपाल के बाद जनसमर्थन से अरविंद केजरीवाल ने आम आदमी पार्टी बनाई। क्योंकि  अरविंद को आभास हो गया था कि आंदोलन और भूख हड़ताल से कुछ भी होने वाला नहीं हैं ,भ्रष्टाचार मिटने के लिए सिस्टम के अंदर जाकर ,भ्रष्टाचार मुक्त भारत बनाना बहुत जरुरी हो गया हैं ,इसमें केजरीवाल का साथ दिया मध्यम व  युवा वर्ग ने ,जिनके समर्थन से अरविंद केजरीवाल ने आम आदमी पार्टी का निर्माण किया। उनका मकसद जाति आधारित राजनीती करना नहीं है। आज कोई भी पार्टी ऐसी नहीं है ,जो ,भ्रष्टाचार मुक्त हो। राजनीती पैसा कमाने व ताकत खरीदने का जरिया बन गया है ,नेता नौकरशाह ,उद्योगपतियों  के  बीच ऐसा समझौता बन गया है ,जिसने लोकतंत्र पर अपना कब्ज़ा जमा लिया ,इसकी वजह से आम आदमी का लोकतंत्र से भरोसा उठता जा रहा हैं।"अन्ना ने आंदोलन के दौरान कहा था कि जनता मालिक है और राजनेता सेवक ,लेकिन आज के हालात में मालिक सेवक हो गया है ,और सेवक मालिक बन बेठा है मौजूदा हालत में राजनीती जनता के नाम पर होती है लेकिन जीत के बाद जनता ही भुला दी जाती है। यह बात अरविंद बखूबी जान  चुके थे कि अब सिस्टम में बदलाव जरुरी हो गया हैं ,इसी एहसास ने लोंगो को सड़क पर उतरने और अरविंद का साथ देने पर मजबूर कर दिया। अन्ना के आंदोलन ने लोंगो को राजनीती का आइना दिखने का काम किया। आज दिल्ली में आम आदमी पार्टी लोंगो को एक उम्मीद का रास्ता दिखा रही है ,इसलिए दिल्ली विधानसभा चुनाव में खतरा दोनों पार्टी (कांग्रेस ,और  भारतीय जनता पार्टी ) को अपनी जमीन खिसकती दिख रही है। देखना है कि अरविंद के समर्थन में उठी आवाजें वोट में परिवर्तित हो पाती हैं या नहीं ?लेकिन जनता कि उम्मीदें जरुर इस पार्टी से हैं कि यह उनके हक़ में काम करेगी।
--सुगंधा झा                                                             

Wednesday 20 November 2013

चुनावी बिगुल

चुनाव  का  समय  नज़दीक  आतें  ही सभी  पार्टियों  को   अपने   चुनावीं  वादें  याद  आते  हैं ।  पिछले  चुनावों में  किए  गए  , वादें  नेताजी   पुरे  नहीं   कर  पातें   हैं ,तब  नया  चुनाव  नए  वादों  के  साथ   मैदान   में  उतर  जाते  हैं । चुनाव  नजदीक  आते  ही  उन्हें  अपनी  जनता ,अपने  क्षेत्र  कि याद  आती  हैं …कोई  नेताजी  जी से  यह  सवाल  पूछे  कि  जब  आप  पाँच साल में  वादें  पूरे  नहीं  कर  पाए  तो  नए  वादे  और पुरानें  वादों   को   मिलाकर  उन्हें   कितना  समय  लगेगा ।क्या   कोई  भी  काम   पूरा करने  के लिए  पांच  साल  बहुत होते  हैं  ?  और  इसी  के साथ  मैदानी  जंग  के  साथ  जुबानी  जंग  तेज़  हो जाती  हैं ,आरोप  प्रत्यारोप  का दौर भी  शुरू  हो जाता है। चुनाव  नजदीक  आते  ही  नेताजी   अपने  इलाकें  कि   सभी  जरुरी  चीजों  कि मरम्मत करवानें  और दौरा  करने में लग जाते हैं। जबकि जीत  के बाद  नेताजी  के दर्शन  दुर्लभ  हो जाते हैं। जनता  अपना नेता चुनती हैं  कि  वह  उसका  नेतृत्व  करें  न  कि  जीत  के  बाद  उनकी  उपेक्षा  हों।                                                                                                                                                               सुगंधा झा      

Thursday 17 October 2013

"डेंगू का डंक "

                                                                                                                                                          दिल्ली   में   डेंगू   का   आतंक   दिन-  ब  -  दिन  बढ़   रहा   हैं ,  अभी  हाल  ही  में  इसके  मरीजों  की  संख्या  दो  हजार तक  पहुच  चुकी  है। हालात    ये  है     कि  दिल्ली   का    कोई    भी   इलाका  ऐसा  नहीं  जो  डेंगू  की    चपेट    में  न  हो  , आज  डेंगू  की  वजह  से  जनता  परेशान  हैं  , वहीं इससे  निपटने  के  बजाय   दोनों  पार्टियां    इसे    चुनावी    मुद्दा   बनाने   की  जुगत    में  लगी   हैं।  डेंगू   का  प्रकोप  बढ़   रहा  है  ,  दूसरी  और   सरकार   एक   दुसरे   पर  आरोप  प्रत्यारोप  में  लगी  है ।  आकड़े  बताते  हैं  कि  1970  से  पहले  सिर्फ  नौ  देशों   में   ही  डेंगू की   महामारी  फैली   थी ।   25  अरब  या   दुनिया   के   चालीस   फ़ीसदी   लोंगो   को   डेंगू   का   खतरा   है ,पांच   से   दस   करोड़    लोंगो  को    हर   साल   गंभीर   डेंगू   का    संक्रमण   होता    हैं।  सौ   देशों   में    महामारी   का   रूप   ले   चुका   है  ,  हर   साल   12500   लोंगो   की   मृत्यु   डेंगू   से   होती   हैं ।  आज   स्थिती   यह   है   कि  दिल्ली   में   डेंगू   के    डर   के   साए   में   लोग  जी   रहे   है ,  दिल्ली   का   कोई   भी  इलाका   आज   डेंगू   से   मुक्त   नहीं   हैं  ।   डेंगू  से  बचाव  के लिए  सबसे   ज्यादा   साफ   सफाई  का  पूरा  ध्यान रखना   चाहिए    और   सतर्क   रहने   की   जरुरत   हैं। अस्पतालों    में   मरीजों    के   लिए   बेड   तक    उपलब्ध   नहीं   ,ब्लड बैंक   में    ब्लड   नहीं   मिलता   है   ,   इससे    पहले   की   हालात   बद  से  बदतर    हो   जाए   । दिल्ली    सरकार   और   आम  जनता   दोनों    को   मिलकर    ठोस    कदम   उठाने    की जरुरत  हैं  ,  इस   साल   दिल्ली   सरकार   ने   डे गू   के   खिलाफ़    जनजागरण   अभियान    भी   ठीक   से   नहीं  चलाया।  कई   जगह   से   मृत्यु    की   खबरें    आने   के   बाद   भी    फोगिंग  और   नालियों   की   सफाई   नहीं  की गयी ।  क्या   सरकार   सिर्फ   जनता   से   टैक्स   वसूलना   ही   जानती   हैं   ?  जब   फर्ज   निभाने   की बारी   आती   है  ,  तो   ऐसा   लगता  है   सो   जाती   है । लेकिन   इस   साल   उसे   यह   बेफिक्री  कहीं   भारी  न   पर   जाए  ,  क्योंकि   चंद    महीनों    में    ही   विधानसभा   चुनाव   होने  वाले हैं।                                          सुगंधा झा

Wednesday 9 October 2013

''मोदी युग की शुरुआत''


भारतीय जनता पार्टी ने नरेंद्र मोदी को 2014 के लोकसभा चुनावों के लिए प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार घोषित कर दिया। एक दौर था,जब भाजपा में अटल बिहारी वाजपेयी और लाल कृषण आडवानी की तूती बोलती थी ,आज अटल जी बीमारी के चलते सक्रिय राजनीति से संन्यास ले चुके हैं ,वहीं अडवानी सक्रिय होने के बावजूद पार्टी में हाशिये पर पहुँच चुके हैं। भाजपा के लौह पुरुष कहलाने वाले अडवानी मोदी के बढ़ते कद से खुश नहीं हैं। जब मोदी को प्रधानमंत्री पद की उम्मीदवारी की घोषणा राजनाथ सिंह ने की ,तब उस बैठक में अडवानी शामिल नहीं थे ,बल्कि उन्होंने नाराजगी भरी चिठ्ठी जरुर भेज दी। कुछ लोग मानते हैं कि मोदी वह सपना देख रहे है ,जो कभी पूरा नहीं होगा क्योंकि पार्टी के कई वरिष्ठ नेता मानते हैं कि, मोदी का एजेंडा पूरे भारत में लागू नहीं हो पाएगा। सच जो भी हों लेकिन वोटों की राजनीती में पिसती आम जनता है। अब देखना यह है कि क्या अकेले मोदी के दम पर भारतीय जनता पार्टी अपना 2014 का मिशन पूरा कर पाती है या नहीं। आजकल पूरा मीडिया मोदी पर मेहरबान है ,लेकिन जिस तरह से मोदी को लेकर हर तरफ अतिरंजना दिखाई देती है ,उससे शक होता है कि कही मोदी का हश्र भी अन्ना हजारे और अरविन्द केजरीवाल जैसा न हो जाए। रणनीति चाहे विधानसभा चुनावों की हो या लोकसभा के मिशन 2014 की केंद्र में नरेंद्र मोदी ही होंगे। राष्ट्रीय स्वंयसेवक संघ व भाजपा के नेताओं के एक वर्ग को पूरा भरोसा है की मोदी पर लगाए गए दांव से विधानसभा चुनाव में भी उसे सफलता मिलेगी और लोकसभा में न या रिकॉर्ड बनेगा। मोदी के साथ भाजपा की रणनीति साफ है ,मोदी अपने हिन्दुत्वादी चेहरे से कांग्रेस के भ्रष्टाचार व कुशासन पर भी हल्ला बोलेंगे। मोदी का लक्ष्य 18 से 35 साल का युवा मतदाता है। गुजरात के विकास की कहानियां सुनकर यूपीए सरकार के पिछले चार सालों के कार्यकाल से त्रस्त मध्य व युवा वर्ग मानने लगा है की केवल मोदी ही देश की कायापलट कर  सकते हैं। अब देखना है की अटल, अडवानी से मोदी युग में पहुचीं भाजपा किस तरह की राजनीती करती हैं।
--सुगंधा झा 

Saturday 21 September 2013

" बंटवारे की राजनीति "

तेलंगाना को भारत का 29वां राज्य घोषित करने के बाद से कई नए राज्यों को बनाने की मांग उठने लगी है. आखिर इसे क्या कहे वोटों के लिए गन्दी राजनीति.

तेलंगाना को अलग राज्य बनाने की मांग कई सालों से की जा रही थी, तब इसको अलग राज्य का दर्ज़ा क्यों नहीं दिया गया. जबकि 2014 के लोकसभा के चुनाव होने से चंद महीने पहले ही इसे अलग राज्य का दर्ज़ा मिल रहा है. 

2014 लोकसभा चुनाव में फायदा उठाने के लिए यह कदम उठाया गया है, क्योकि आंध्र प्रदेश में लोकसभा
की 42 सीट है जिसमे की 17 सीट तेलंगाना क्षेत्र की है. इनमे से 12 सीटो पर कांग्रेस का कब्ज़ा है.

इसी तरह विधानसभा की 294 सीटों में से 119 तेलंगाना से आती हैं जिसमें 50 से ज्यादा सीटों पर कांग्रेस का कब्ज़ा है.

कांग्रेस को तेलंगाना से ज्यादा अपनी सीटों की फ़िक्र है. केवल अपनी राजनैतिक रोटी सेंकने के लिए ये कुछ भी कर सकते है. कहां इन लोगों को देश की एकता अखंडता को बनाये रखना चाहिए जबकि ये लोग देश को ही टुकड़े करने पर तुले है.



आखिर इस देश को कितने राज्यों की जरुरत है...विभाजन अपने आप में ही त्रासदी है चाहे वह देश का हो या राज्यों का बंटवारा. यह हमारी एकता अखंडता पर सवालिया निशान लगाता है.

तेलंगाना बनने से कई नए राज्यों को अलग करने की मांग की जा रही है. महाराष्ट्र में विदर्भ, मुंबई, बंगाल में गोरखालैंड, असम में बोडोलैंड और कर्बी...बिहार में मिथिलांचल... उत्तर प्रदेश में बुंदेलखंड और पूर्वांचल को अलग करने की मांग तेज हो गयी है.

हो सकता है कि आने वाले समय में ज़िलों में भी बंटवारे की मांग तेज़ हो जाये...यह सिलसिला तो थमने से रहा.

राज्यों में क्यों कुछ इलाके पिछड़े रह जाते है यह एक चर्चा का विषय है. क्यों हमलोग देश को एक सूत्र में पिरों कर नहीं रख सकते, हर मुद्दे पर राजनीति ठीक नहीं है अगर देश को जोड़ने वाले ही इसे तोड़ने लगेंगे तो इस विशाल भारत देश का क्या होगा हम सोच भी नहीं सकते है.

आज़ादी के समय भारत से पाकिस्तान का बंटवारा और जम्मू कश्मीर को लेकर हम आज भी लड़ रहे हैं तो फिर क्यों देश के भीतर भी राज्यों और जिलों को बांटने की नीति अपनाई जा रही है. यह कहां तक सही है.

उन्हें समृद्ध बनाने के लिए राज्य और केंद्र सरकारों पर दबाव बनाना चाहिए ना कि विभाजन की नीति अपनानी चाहिए. विभाजन ही हर समस्या का हल होता तो सभी छोटे राज्य सम्पन होते. एक बार झारखण्ड, उत्तराखंड, छतीसगढ़ की स्थिती देख ली जाये तो सबकुछ खुद ब खुद समझ में आ जायेगा.

अगर इसी तरह से देश के टुकड़े होते रहे तो इस देश में 100 राज्य भी कम पर जायेंगे. अभी भी केंद्र सरकार के पास 50 नए राज्यों को बनाने की मांग का प्रस्ताव लंबित है. इस और ध्यान देने की बहुत जरुरत है.

-सुगंधा झा

"गरीबों का मजाक "

क्या केन्द्र की कांग्रेस सरकार गरीबों का मजाक उड़ाने पर अड़ी हुई है. 1977 में कांग्रेस का स्लोगन था गरीबी हटाओ, आज के समय को देख कर लगता है यही लोग चाहते है कि गरीबों को ही हटाओ.

क्या सोच समझ कर ये लोग बोलते हैं कि 27 और 33 रूपए कमाने वाले लोग गरीब नहीं है. क्यों ये गरीब और गरीबों का मजाक बना रहे हैं.

योजना आयोग गांव में 27 रूपए तथा शहर में 33 रूपए से अधिक खर्च
करने वाले लोगों को गरीब नहीं मानता है, इससे कम खर्च करने वाले व्यक्ति को गरीबी रेखा से नीचे माना गया है.

भारत सरकार का दावा है कि 2004 से अब तक देश में गरीबी एक तिहाई कम हुई है, लेकिन क्या सचमुच में यें आंकड़े भरोसा करने लायक हैं.

देश की 21.9 फ़ीसदी आबादी गरीब है, गरीबों की संख्या 26.93 करोड़ है जिसमें ग्रामीण क्षेत्र में 21.65 करोड़ एवं शहरी क्षेत्र में 5.28 करोड़  गरीब हैं.

दुनिया में भूखे लोगों वाले 79 देशों की सूची में भारत 75 वें नंबर पर है. संयुक्त राष्ट्र खाद्य और कृषि संगठन के मुताबिक 2012 में भारत में 21.7 करोड़ लोग कुपोषित थे, सिर्फ इतना ही नहीं पाँच साल से कम उम्र के करीब आधे बच्चे कुपोषित है और यह सिलसिला कई सालों से चला आ रहा है.

इसके बाद भी कई अर्थशास्त्री मानते हैं कि भारत में सरकारी योजनाओं के दम पर गरीबी कम हुई है. आज के समय में 27 और 33 रूपए में क्या आता है, पिछले दिनों माननीय सांसद राशिद मासूद और राजबब्बर ने तो यहां तक कहा कि दिल्ली और मुंबई में 5 और 12 रूपए में भरपेट भोजन मिलता है तो राहुल गाँधी गरीबी को मानसिक अवस्था बताते हैं.

क्या कभी उन्होंने यह सोचा की आज के समय में पाँच रूपए में एक कप चाय नसीब नहीं तो भोजन कहां से मिलेगा, खुद तो ये लोग एक दिन के भोजन पर 7500 रूपए खर्च करते है और लोगों को गरीब न कहलाने को बोलते है.

रही बात खर्च के आधार पर गरीबी को नापने की तो जरुरी चीजों की कीमतें लगातार बढ़ती है जब इन वस्तुओं के मूल्य बढेंगे और आमदनी जस की तस रहेगी तो जाहिर सी बात है गरीबों की संख्या भी बढ़ेगी.

राष्ट्र के 70 करोड़ लोगों के जीवनयापन से जुड़े सवाल को चंद राजनेता लोग मुद्दा बनाकर अपना फायदा उठाते हैं. टिप्पणी करते समय ये लोग अपनी मर्यादा को पार क्यों करते है?

आम जन के समझ से परे है कि हरियाणा के झज्झर में 2009 में बरबाद हुए फसलों के मुआवज़े के रूप में किसानो को 2 और 3 रूपए के चेक दिए गये, सरकार आखिर इससे क्या साबित करना चाहती है. प्रशासन का कहना है कि लोगों को उनकी बरबाद फसल के अनुपात से मुआवज़ा दिया गया है.

आखिर ये लोग क्या साबित करना चाहते हैं. गरीबी न हटा सको तो कम से कम गरीबों का मजाक तो मत उड़ाओ. अब तो ऐसा लगता है भारत में गरीब कहलाना ही शर्म की बात है.


क्या केन्द्र की कांग्रेस सरकार गरीबों का मजाक उड़ाने पर अड़ी हुई है. 1977 में कांग्रेस का स्लोगन था गरीबी हटाओ, आज के समय को देख कर लगता है यही लोग चाहते है कि गरीबों को ही हटाओ.

क्या सोच समझ कर ये लोग बोलते हैं कि 27 और 33 रूपए कमाने वाले लोग गरीब नहीं है. क्यों ये गरीब और गरीबों का मजाक बना रहे हैं.

योजना आयोग गांव में 27 रूपए तथा शहर में 33 रूपए से अधिक खर्च
करने वाले लोगों को गरीब नहीं मानता है, इससे कम खर्च करने वाले व्यक्ति को गरीबी रेखा से नीचे माना गया है.

भारत सरकार का दावा है कि 2004 से अब तक देश में गरीबी एक तिहाई कम हुई है, लेकिन क्या सचमुच में यें आंकड़े भरोसा करने लायक हैं.

देश की 21.9 फ़ीसदी आबादी गरीब है, गरीबों की संख्या 26.93 करोड़ है जिसमें ग्रामीण क्षेत्र में 21.65 करोड़ एवं शहरी क्षेत्र में 5.28 करोड़  गरीब हैं.

दुनिया में भूखे लोगों वाले 79 देशों की सूची में भारत 75 वें नंबर पर है. संयुक्त राष्ट्र खाद्य और कृषि संगठन के मुताबिक 2012 में भारत में 21.7 करोड़ लोग कुपोषित थे, सिर्फ इतना ही नहीं पाँच साल से कम उम्र के करीब आधे बच्चे कुपोषित है और यह सिलसिला कई सालों से चला आ रहा है.

इसके बाद भी कई अर्थशास्त्री मानते हैं कि भारत में सरकारी योजनाओं के दम पर गरीबी कम हुई है. आज के समय में 27 और 33 रूपए में क्या आता है, पिछले दिनों माननीय सांसद राशिद मासूद और राजबब्बर ने तो यहां तक कहा कि दिल्ली और मुंबई में 5 और 12 रूपए में भरपेट भोजन मिलता है तो राहुल गाँधी गरीबी को मानसिक अवस्था बताते हैं.

क्या कभी उन्होंने यह सोचा की आज के समय में पाँच रूपए में एक कप चाय नसीब नहीं तो भोजन कहां से मिलेगा, खुद तो ये लोग एक दिन के भोजन पर 7500 रूपए खर्च करते है और लोगों को गरीब न कहलाने को बोलते है.

रही बात खर्च के आधार पर गरीबी को नापने की तो जरुरी चीजों की कीमतें लगातार बढ़ती है जब इन वस्तुओं के मूल्य बढेंगे और आमदनी जस की तस रहेगी तो जाहिर सी बात है गरीबों की संख्या भी बढ़ेगी.

राष्ट्र के 70 करोड़ लोगों के जीवनयापन से जुड़े सवाल को चंद राजनेता लोग मुद्दा बनाकर अपना फायदा उठाते हैं. टिप्पणी करते समय ये लोग अपनी मर्यादा को पार क्यों करते है?

आम जन के समझ से परे है कि हरियाणा के झज्झर में 2009 में बरबाद हुए फसलों के मुआवज़े के रूप में किसानो को 2 और 3 रूपए के चेक दिए गये, सरकार आखिर इससे क्या साबित करना चाहती है. प्रशासन का कहना है कि लोगों को उनकी बरबाद फसल के अनुपात से मुआवज़ा दिया गया है.

आखिर ये लोग क्या साबित करना चाहते हैं. गरीबी न हटा सको तो कम से कम गरीबों का मजाक तो मत उड़ाओ. अब तो ऐसा लगता है भारत में गरीब कहलाना ही शर्म की बात है                                                      सुगंधा  झा                                                                                                                                              पूर्व प्रकाशित :http://topnewsindia.com/

Wednesday 18 September 2013

बेटा-बेटी का फ़र्क

आज के समय में भी बेटा-बेटी में इतना फ़र्क क्यों होता है?

जहाँ लडकियां आज किसी भी क्षेत्र में पीछे नहीं है वहाँ पर इस तरह का भेदभाव ठीक नहीं है. बेटा-बेटी में फ़र्क करना कोई समझदारी नहीं है.

घर में अगर बेटी है तो इसकी ख़ुशी बेटों की तरह मनानी चाहिये. वह बेटों से ज्यादा आज्ञाकारी होती है.

बेटी की ख़ुशी से ही हर घर फलता-फूलता है, उनके लिए दिलों में सम्मान होना चाहिये.

अभी हाल ही में हरियाणा के गुडगाँव में बेटा पैदा न
करने पर पति ने अपनी पत्नी की हत्या कर दी. यह मामला कोई नया नहीं है, आमतौर पढ़े- लिखे सुखी सम्पन परिवार वाले ही इस तरह का भेदभाव करते हैं.

अगर बेटियों को समान शिक्षा और तरक्की के समान मौके मिलें तो वो समाज की तस्वीर बदल सकती हैं. माता-पिता अपने बेटों को बचपन से ही महिलाओं का सम्मान करना सिखाएं, उन्हें बताएं कि लड़कियां उनसे किसी मामलें में पीछे नहीं हैं.

बेटियों को समझाना होगा कि सिर्फ़ शादी करना और अच्छी पत्नी बनना ही उनके जीवन का लक्ष्य नहीं हैं. उन्हें भी पुरुषों की तरह महत्वाकांक्षी बनने व प्रतियोगिता में सबको पछाड़ने का हक़ हैं.

बेटियों की शिक्षा से ही समाज में बदलाव आ सकता है, रुढ़िवादी सोच के कारण आज भी कई जगहों पर बेटा-बेटी में भेदभाव हो रहा है.

जब तक समाज इस संकीर्ण मानसिकता से ऊपर नहीं उठता तब तक इस तरह का भेदभाव मिटने से रहा.

माता-पिता क्यों अपनी बेटियों पर दवाब बनाते हैं कि वे अपनी शादी बचाने और घर की शांति बनाए रखने के लिए समझौतें करें.

आखिर बेटियां ही क्यों समझौते और तरक्की के नाम पर अपने करियर को त्यागें. यह सीख बेटो को क्यों नहीं दी जाती हैं?

बेटी बचाओ अभियान को जोर पकड़ने की अब बहुत जरूरत हैं. बेटियां बोझ नहीं बल्कि बेटियां घर की लक्ष्मी होती है. वह एक नहीं बल्कि दो- दो घरों की बागड़ोर संभालती है.


यह समस्या इतनी बढ़ गयी है कि इसे रोकने के लिए एक क्रांति की जरूरत है. नहीं तो हमारे देश की स्थिति भी चीन जैसी होगी जहां लड़कों को शादी के लिए लड़कियां नहीं मिल रही हैं.

इसलिए जितना जरूरी बेटा हैं उतनी ही बेटी भी जरूरी है.

कन्या भ्रूण हत्या रोकने के लिए लोगों की सोच में बदलाव जरूरी है. इसके बिना प्रयास निरर्थक है. यह शुरुआत हमें अपने घर और आसपास से ही करनी चाहिए.

पंजाब और हरियाणा से जल्द सबक नहीं लिया तो समस्त देश कन्या भ्रूण हत्या के दुष्परिणाम भुगतेंगे.

-सुगंधा झा

महिलाओं के साथ बढ़ते अपराध

आज के समय में महिलाएं खुद को कहीं भी सुरक्षित महसूस नहीं कर रही हैं. खासतौर पर बड़े शहरों का हाल तो और भी ज्यादा चिंताजनक है.

सोलह दिसम्बर को दिल्ली गैंगरेप के बाद हुए जोरदार आंदोलन और प्रदर्शन ने लोगों को झकझोर के रख दिया. इसके बाद सख्त कानून बनाने को लेकर चर्चाएं हुई. जिससे लगा कि अब देश में महिलाओं की स्थिति ठीक हो जाएगी. लेकिन हाल ही में मुंबई में एक महिला पत्रकार के साथ
जो कुछ हुआ उससे सारा देश सकते में आ गया.

महिला पत्रकार के साथ सामूहिक बलात्कार बताता है कि हम विचारों की आधुनिकता की चाहे जितनी भी बातें कर ले...लेकिन महिलाओं के प्रति पुरुषों का रवैया जस का तस है.

मेरा सवाल पूरे समाज से है कि जिस देश की महिलाओं को कभी सती, सावित्री का दर्जा दिया जाता था. वहां आज महिलाओं के साथ इस तरह के जघन्य अपराध रोज क्यों हो रहे हैं.

आखिर महिलाओं के प्रति लोगों का नजरिया इतना क्यों गिर रहा हैं? अपराध होने के बाद कुछ दिनों तक सरकारी महकमा, स्वायत्त संगठन, प्रशासन बेहतर सुरक्षा का वादा करते हैं. लेकिन कुछ दिनों तक मामला गर्म रहने के बाद ठंडे बस्ते में चला जाता है. कुछ समय तक इन अपराधों पर जोर-शोर से चर्चा होती हैं फिर वही सब होने लगता है.

स्त्री समाज का जीवन नारकीय हो रहा है इसका जिम्मेदार कौन हैं? ऐसे अपराधों में अपराधी से लेकर प्रशासन और समाज की मानसिकता सभी दोषी है, इसलिए हर स्तर पर प्रयास जरुरी है. 

देश में महिलाओं की सुरक्षा के लिए ऐसा कानून बने, जिससे वह खुद को सुरक्षित महसूस कर सके…कठोर कानून बनाने और उसे लागू करने की अब बहुत जरूरत हैं, जिससे कि अपराधी ऐसा कुछ करने से पहले सौ बार उस सजा के बारे में सोचे.


-सुगंधा झा

Sunday 1 September 2013

मिड डे मील योजना

मिड डे मील योजना के नाम पर बच्चों की जान के साथ खिलवाड़ होता है, जबकि यह योजना काफी समय से चली आ रही है। जिसमें की बारह लाख स्कूलों में करीब साढ़े दस करोड़ बच्चों को दोपहर का भोजन दिया जाता है।
केंद्र सरकार इस योजना में करीब पंद्रह हज़ार करोड़ खर्च करती है, इसे बनाने के लिए सताईस लाख रसोएये  काम करते हैं। केंद्र सरकार की इस योजना को सफल बनाने के लिए राज्य की सरकारों को पूरा धयान देना चाहिये, क्योंकि ये उनकी ज़िम्मेदारी है। 

पिछले दिनों बिहार के छपरा में मिड डे मील खाने से तेईस बच्चों की मौत हुई, और पहले भी कई बार पढने और सुनने में आया है, कि मिड डे मील में ख़राब भोजन परोसा गया है, जिसे खाने के बाद बच्चे बीमार हुए हैं। इसके कई कारण हो सकते हैं ,पहला तो यह की जो कर्मचारी खाना पकाते हैं, उनको कम वेतन मिलता है, जिससे की वह बेमन से काम करते है, इसलिए रसोईयों की तन्खा बढाई जाये ,दूसरी वजह कर्मचारियों के पास ज्ञान का अभाव है इसलिए वे कीटनाशक के डिब्बे का इस्तेमाल खाना बनाने में कर गये ,ऐसे में उन्हें खाना बनाने के तौर तरीके बताये जाये ,,जहाँ खाना बनता है और जिन बर्तनों में पकता है वहा पूरी साफ सफाई का धयान रखा जाये ,,,तीसरा कारण यह है क़ि  हमारे यहा सामाजिक निगरानी की व्यवस्था नहीं है स्थानीय लोंगो की भागीदारी इसमें होनी चाहिए। सामान से लेकर खाना बनाने और परोसने तक की ज़िम्मेदारी एक निरीक्षक अधिकारी की मौजूदगी में हो। जो वस्तुओं की जाँच परख कर मिड डे मील तैयार करवाए। क्योंकि बच्चें देश का भविष्य होते हैं इनकी जान के  साथ खिलवाड़ उचित नहीं हैं।
--सुगंधा झा

Tuesday 13 August 2013



Photo: कॉमेडी  के नाम पर मजाक है फिल्म चेन्नई एक्सप्रेस। फिल्म में शाहरुख़ खान ने यंग किरदार निभाने की कोशीस की है जो ठीक नहीं है दीपिका की एक्टिंग जबरदस्त है दक्षिण भारतीय किरदार में जच रही है,फिल्म  का  गीत ,संगीत काफी हद तक ठीक है। फिल्म देखकर लगा की रोहित शेट्टी से जबरदस्ती निर्देशन करवाया गया है। ये और बात है की शाहरुख के फेन इस फिल्म  को जरुर देखेंगे। लेकिन रियल स्टोरी देखने वालो को फिल्म जरुर नीरास  करेगी। फिल्म रिकॉर्ड कमाई कर रही है  ,क्योकि वीकेंड पर फिल्म रिलीज़ हुई इसलिए इसका फयदा इसे जरुर मिलेगा। समय के लिहाज से फिल्म के लिए सो करोर या दो सो करोर कोई मायेने नहीं रखता है। हर दिन हर छेत्र में नए रिकॉर्ड बनते है और टूटते  है.इसलिए फिल्मो के लिए सॊ या दो सो करोर की कमाई मुस्किल नहीं।
कॉमेडी के नाम पर मजाक है फिल्म चेन्नई एक्सप्रेस। फिल्म में शाहरुख़ खान ने यंग किरदार निभाने की कोशीस की है जो ठीक नहीं है दीपिका की एक्टिंग जबरदस्त है दक्षिण भारतीय किरदार में जच रही है,फिल्म का गीत ,संगीत काफी हद तक ठीक है। फिल्म देखकर लगा की रोहित शेट्टी से जबरदस्ती निर्देशन करवाया गया है। ये और बात है की शाहरुख के फेन इस फिल्म को जरुर देखेंगे। लेकिन रियल स्टोरी देखने वालो को फिल्म जरुर नीरास करेगी। फिल्म रिकॉर्ड कमाई कर रही है ,क्योकि वीकेंड पर फिल्म रिलीज़ हुई इसलिए इसका फयदा इसे जरुर मिलेगा। समय के लिहाज से फिल्म के लिए सो करोर या दो सो करोर कोई मायेने नहीं रखता है। हर दिन हर छेत्र में नए रिकॉर्ड बनते है और टूटते है.इसलिए फिल्मो के लिए सॊ या दो सो करोर की कमाई मुस्किल नहीं।
-सुगंधा झा

मधुश्रावणी पूजा

मधुश्रावणी बिहार के मिथिलांचल का परम्परागत त्योहार है. नई नवेली दुल्हन शादी के बाद पहले सावन में इस त्योहार को करती है.

मधुश्रावणी अक्षयसुहाग की कामना से श्रावण कृष्ण पंचमी से श्रावण शुक्ल तृतया (जुलाई-अगस्त) तक तेरह दिन महादेव शिवशंकर अर्धांगिनी महागौरी की आराधना का व्रत है.

मधुश्रावणी पूजा में नाग देवता, गौरी, शांति कलश, सूर्य, चंद्रमा, नवग्रह की पूजा की जाती है. पति की रक्षा और सुहाग के लिए विधि विधान से यह पूजा की जाती है.

यह पूजा शादीशुदा अपने मायके
आ कर करती हैं इस पूजा में उपयोग होने वाली सभी चीजें युवती के ससुराल से आती है. पूजा सामग्री से लेकर श्रृंगार और खाने के सामान तक सुबकुछ ससुराल से ही आता है.

इस पूजा में हरे रंग का इस्तेमाल ज्यादा होता है क्योकि सावन महिना ही हरयाली का है. इसलिए शादीसुदा हरे रंग की सारी और हरे रंग की ही लाख की चुरिया पहनती है.

इसमें सुबह को पूजा और कथा होती है और शाम को बांस की बनी हुई टोकरी को फूल और पत्तों से सजाई जाती है.

Neemi Saatish Thakur

इस पूजा में पूरे तेरह दिनों तक कथा होती है जिसमे पहले दिन नाग-नागिन की कथा, दूसरे दिन महादेव की पुत्री मनसा और मंगला गौरी की कथा सुनाई जाती है, तीसरे दिन पृथ्वी जन्म और समुद्र मंथन की कथा, चौथे दिन सती और पतिव्रता की कथा, पांचवें दिन महादेव परिवार (उमा, पार्वती, गंगा) की कथा, छठे दिन गंगा और गौरी जन्म की कथा, सातवें दिन गौरी तपस्या की कथा, आठवें दिन गौरी विवाह कथा, नवें  दिन पार्वती की माता मैना के मोहभंग की कथा, दसवें दिन कार्तिक और गणेश जन्म की कथा, ग्यारहवें दिन राजा हिमालय की बेटी संध्या की कथा, बारहवें दिन बाल बसंत और मध्यस्थ राजा की बेटी गोसौनि की कथा, तेरहवें दिन राजा श्रीकर्क की कथा होती है.

मधुश्रावणी पूजा के अंतिम दिन नवविवाहित दंपति मिलकर पूजा करते हैं.

इस दिन नवविवाहिता अपने हाथों से घऱ की दूसरी सुहागनों को श्रृंगार का सामान देती हैं और मीठा खाना खिलाती हैं. घर परिवार को बड़े लोगों का आशीर्वाद लेती हैं.

इस पूरे तेरह दिनों तक नवविवाहिता एक ही समय भोजन ग्रहण करती हैं वह भी बिना हल्दी और घी में बना शुद्ध शाकाहारी खाना.

सूर्यास्त होने के बाद पानी तक नहीं पिया जाता है. यह त्योहार मिथिलावासियो में नवदम्पतियो के लिए सबसे बड़ा और लंबा त्योहार है इस दौरान घरों में गाना-बजाना, गीत-नाद भी होता है.

-सुगंधा झा
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ईमानदारी की सजा

                                                                                                                                                       

उत्तर प्रदेश में मुख्यमंत्री अखिलेश सिंह क्या खनन माफिया के दबाव में सरकार चला रहे हैं? ऐसा नहीं है तो फिर आईएएस अफसर दुर्गा शक्ति नागपाल को ईमानदारी का यह सिला क्यों मिला.

उन्हें उत्तर प्रदेश सरकार में नौकरी के दस महीने के भीतर ही निलंबित कर दिया गया. वो भी बिना कारण बताओ नोटिस के. स्थानीय नेता के एक फ़ोन कॉल ने एक ईमानदार अफसर को 41 मिनट के अंदर नौकरी से सस्पेंड करवा दिया.

सरकार का कहना है कि प्रशासनिक कार्यो में लोगों को बहस करने
की जरूरत नहीं है तो अखिलेश जी आप ही बताये कि आपने किस मुद्दे को लेकर एक ईमानदार अफसर को सस्पेंड किया.

देश में ईमानदारी के लिए बढ़िया ईनाम दिया जा रहा है ईमानदार अफसर को मरवा दो नहीं तो सस्पेंड कर दो.

आखिर देश किस राह पर जा रहा है. क्यों हमारे यहां की सरकार ईमानदार अफसर से डरती है. बिना किसी कारण ट्रान्सफर... ससपेंड कर दिया जाता है.

अधिकारियों को उनके कार्य में रुकावटें पैदा की जाती हैं. आखिर देश के हर राज्य में खनन माफियाओं से सरकार क्यों डरती है. सरकार और खनन माफिया के बीच कुछ और ही खिचड़ी पकती है.

उत्तर प्रदेश में पहले ही क्राइम क्या कम है. यहाँ पुलिस से लेकर आम जनता तक त्रस्त है और सरकार माफिया को खत्म करने के बजाय ईमानदार अफसर को ही सस्पेंड करती है. और कहती है कि सरकारी काम में दखलंदाज़ी न की जाय.

कैसे जनता सबकुछ जानते हुए चुपचाप सहती रहे. आप ही बताइए मुख्यमंत्रीजी.

सोशल मीडिया की वजह से आज एक ईमानदार अफसर के हक की लड़ाई लड़ी जा रही है. कुछ समय बाद कहेंगे कि ये सब विपक्ष का किया कराया है. जनता की आवाज सुनिए मुख्यमंत्रीजी.

-सुगंधा झा 


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Monday 12 August 2013

भारत से धोखा

क्यों पाकिस्तान बार-बार हमला कर रहा है और भारत सरकार बैठ कर बातचीत करना चाहती है.
आखिर कब तक हम यूं ही सब कुछ सहते रहेंगे. 1948, 1971, 1998, में भारत की पाकिस्तान से जंग हो चुकी है.
भारत के कश्मीरी भूभाग पर पाकिस्तान ने नाजायज कब्ज़ा कर रखा है, जिससे तनाव की स्थिती बनी रहती है.

पाकिस्तानी सेना लगातार भारतीय सीमा का उल्लंघन करती आ रही है. साल 2010 में 44 बार, 2011 में 51 बार, 2012 में 71 बार, 2013 में अब तक
57 बार उल्लंघन कर चुकी है.

अब तक साल 2013 में ही पाकिस्तान ने तैंतीस बार सीमा का उल्लंघन किया है और जिस में जुलाई में ही छह बार हमले हुए है, इस में अब तक पैंतीस जवान शहीद हुए है.

आठ जनवरी 2013 को भी पाकिस्तान ने भारत की नियंत्रण रेखा का उल्लंघन किया है, जिसमे दो जवानों के सर काट कर ले गए, जिसके विरोध में भारत आये पाकिस्तान के हॉकी खिलारियों को वापस भेज दिया गया.

अभी मंगलवार को ही जम्मू-कश्मीर के पुंछ सेक्टर के सरला पोस्ट में 450 मीटर अंदर घुसकर हमला किया गया जिसमें पांच जवान शहीद हो गये. इसमें बिहार रेजिमेंट के ही चार जवान थे और एक मराठा रेजिमेंट का.

बिहार के छपरा जिले के नायक प्रेमनाथ (35), छपरा के ही रघुनंदन प्रसाद (23), भोजपुर जिले के लांस नायक शंभूशरण (29), पटना के विजय कुमार राय (27) और महाराष्ट्र के नायक पुंडलिक माने शामिल हैं.

जिस तरह ये अपनी जान की बजी लगा कर हमारी रक्षा करते है, उसमें हमारे नेताओं की बयानबाजी कहां तक सही है.

ये लोग इनकी मौत पर भी सियासत करने से नहीं चूकते. क्या आखिर दो चार या दस लाख मुआवजा देकर ये लोग उनके परिवार का पालन कर सकते है, उनकी कमी को पूरा किया जा सकता है.

हम उनकी सुरक्षा नहीं कर सकते तो कम से कम उनके घाव पर नमक नहीं लगाना चाहिए. इस हमले के बाद बिहार के एक मंत्री जी का कहना है की पुलिस और सेना में लोग मरने के लिए ही भर्ती होते हैं.

बार-बार इस तरह के हमलों के वावजूद भी कुछ नेताओ का कहना है की युद्ध कोई हल नहीं बल्कि बातचीत के जरिये मामले को सुलझाया जा  सकता है. क्यों हम लोग हर बार किसी बड़े हमले का इंतजार करते है?

लगातार इस तरह की घटना के बावजूद मिलकर कदम उठाने के बजाय नेता लोग एक-दूसरे पर दोषारोपण करते रहते हैं. अब समय आ गया है कि पाकिस्तान को ईंट का जवाब पत्थर से दिया जाये. नहीं तो इसी तरह हमले आगे भी होते रहेंगे और हमारे वीर जवानों की जान जाती रहेगी.

अब सरकार को कठोर कदम उठाने होंगे और पाकिस्तान को जवाब देना ही होगा. वक़्त आ गया है की इस तरह की घटना का मुंहतोड़ जवाब दिया जाये. नहीं तो पाकिस्तान आपनी चाल से बाज नहीं आएगा.

-सुगंधा झा
पूर्व प्रकाशित http://www.topnewsindia.com/2013/08/blog-post_7263.html